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भाग्य खुल गया! : आंध्र प्रदेश की लोक कथा

राजा वीरभद्र बढ़ा दयालु शासक था । जो सचमुच जरूरतमन्द होते थे उन्हें आर्थिक मदद देने में वह कभी सोच-विचार नहीं करता था।

जैसे जब कोई नया व्यापार आरम्भ करना चाहता था अथवा कोई अपने परिवार को लम्बी तीर्थयात्रा पर ले जाना चाहता था अथवा कोई बहुत दिनों से रोगग्रस्त रहता था और चिकित्सा के लिए धन का अभाव हो जाता था, तब वह निःसंकोच उनकी मदद कर दिया करता था।

आश्चर्य कि वे सभी राजा के पास वापस जाकर कुतज्ञता पूर्वक कहते कि उनका नया व्यापार बढ रहा है, कि उनके परिवार ने अनेक तीर्थस्थलों के दर्शन कर देवताओं के आशीर्वाद लिये हैं अथवा कि वह अब रोगमुक्त हो गया है और जीवन निर्वाह के लिए काम करने योग्य है।
राजा को यह देखकर प्रसनता होती थी कि समय पर दी गई उसकी मदद से वांछित परिणाम मिल गया ।
लेकिन उसे एक बात का दुःख रह गया।

वीरभद्र का दूर के रिश्ते में एक चचेरा भाई था, वीरमूर्ति , जो बहुत गरीब था। राजा उसकी सचमुच मदद करना चाहता था, परन्तु वह व्यक्ति उसकी मदद से पूरा लाभ नहीं उठा पाता था।

वीरमूर्ति एक अच्छा शिकारी था और भिन्न-भिन्न विषयों पर कविताएँ भी बनाता था और राजा को सुनाता था। राजा को कविता बहुत प्रिय थी । वीरमूर्ति जब भी आखेट से वापस आता या कविता सुनाता तो राजा उसे पुरस्कार देता था। लेकिन धन का उपयोग करने से पहले ही या तो उसे चोर ले जाता अथवा मार्ग में उसका थैला खो जाता। इस प्रकार वह हमेशा गरीब का गरीब ही बना रहा ।
जब भी वह महल में आता तो वह मैले-कुचैले कपड़ों में होता अथवा भूखा-प्यासा रहता ।

एक दिन, वीरमूर्ति ढेर सारे शिकार के साथ महल में आया। वीरभद्र उस पर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने अपने दरबारियों के सामने उसे पुरस्कार देना चाहा । इसलिए उसने उन सबको बुला कर कहा, “आप सब मेरे चच्चेरे भाई वीरमृर्ति को जानते हैं । आज उसने ढेर सारे शिकार मार कर अपनी बहादुरी दिखाई है। मैं आप सब के सामने इसे पुरस्कार देना चाहता हूँ।' तब राजा ने विधिपूर्वक उसे एक चमकदार नारंगी भेंट की और मुस्कान के साथ उसे विदा किया। वीरमूर्ति ने झुककर राजा को धन्यवाद दिया और दरबार से बाहर निकल गया।

दरबार में कानाफूसी होने लगी।राजा अपने गरीब चचेरे भाई के साथ शरारत तो नहीं कर रहे हैं? राजा ने कानाफूसी सुन ली, लेकिन उस पर ध्यान नहीं दिया । न तो चचेरे भाई को और न ही दरबारियों को यह खबर थी कि पुरस्कार में दी गई नारंगी साधारण नहीं थी और उसमें मृल्यवान रत्न थे।

वीरमूर्ति ने पुरस्कार के बारे में दुबारा नहीं सोचा। आखिर राजा ने दरबारियों के सामने उसकी बहादुरी की तारीफ की। उसके लिए यही बहुत बड़ी बात थी। मामूली नारंगी से यह कही अधिक बड़ा पुरस्कार था। उसे वह अपने थैले में डाल घर की ओर चल पड़ा ।
मार्ग में उसे एक भिक्षु मिला। उसने अपना कटोरा उसके सामने बढ़ा दिया । वीरमृर्ति के पास पैसे नहीं थे, इसलिए उसने थैले से नांरगी निकाली और भिखारी के कटोरे में डाल दी। “तुम्हें भूख लग रही होगी, इसे खा लो।''यह कह कर वीरमूर्ति चलता बना ।

भिक्षु यह देखकर आश्चर्य करने लगा कि नारंगी असामान्य रूप से भारी है । वह बहुत चमकदार थी, इसलिए उसे राजा के पास ले जाने का उसने निश्चय किया । पहरेदारों ने राजा की दानशीलता को जानते हुए भिक्षु को महल के अन्दर जाने दिया।

जब वह दरबार के अन्दर गया, राजा ने उसे बड़े आदर के साथ बैठाया। भिक्षु ने सुनहली नारंगी निकालते हुए कहा, “महाराज, कृपया इस गरीब भिक्षु का उपहार स्वीकार करें, किन्तु इसके साथ मेरा आशीर्वाद है। चिरंजीवी भव ।”

नारंगी को देखते ही वीरभद्र जान गया कि उसका अभागा भाई नारंगी का मूल्य समझ नहीं सका । उसने नारंगी स्वीकार कर ली और उसे चाँदी के सिक्कों से भरा एक थैला भेंट किया। भिक्षु राजा को आशीर्वाद देकर चला गया।

जब राजकीय आखेट की घोषणा की गई तब वीरमूर्ति भी आखेटकों में शामिल था । इस बार भी उसने पहले की तरह अनेक शिकार किये।

राजा ने पुन: उसे पुरस्कार में नारंगी दी । वीरमूर्ति ने सोचा कि यह दूसरी नारंगी होगी। इसलिए उसे वह थैले में रखकर दरबार से बाहर चला गया।

मुख्य द्वार पर पहुँचने से पहले उसे एक दरबारी मिला । वह पान चबा रहा था । क्या तुम्हारे पास और अतिरिक्त पान है?” वीरमूर्ति ने पूछा । उसने पान के बदले दरबारी को नारंगी दे दी।

दरबारी ने दवी हँसी के साथ उसे स्वीकार कर लिया। वह जानता था कि उसे वह क्या करेगा । वह तुरन्त राजा के पास गया और उसे नारंगी देते हुए बोला, “यह आप के चचेरे भाई ने मेरे पान के बदले मुझे दिया है। आपने उसे यह दो बार दी, लेकिन उसने सम्भाल कर अपने लिए नहीं रखा। महाराज, उसे मदद करने का कोई फायदा नहीं। वह जिंदगी में कभी कामयाब नहीं होगा।"

एक और राजकीय आखेट में उसकी बहादुरी के लिए राजा ने उसे तीसरी बार वह नारंगी दी। । साथ ही, यह कसम खाई कि यह उसकी आखिरी मदद है। वीरमूर्ति ने जब राजा के हाथ से नारंगी ली तब वह जमीन पर गिरकर कई ट्रकड़ों में बिखर गई। उसके अन्दर के मूल्यवान रत्न बाहर आ गये।

“क्षमा कीजिए महाराज'', यह कहकर माफी मांगते हुए वीरमूर्ति रत्नों को एक-एक कर चुनने लगा। साथ ही, वह चकित भी था । उसने राजा के चेहरे की ओर देखा ।

राजा ने मुस्कुराते हुए कहा, मेरे भाई, तुम्हारा भाग्य खुल गया है। जब भी मैंने तुम्हें मदद करने की कोशिश की, तुम करीबन इनकार करते रहे। तुमने नारंगी दूसरों को दे दी ! अब तुम धनी बन जाओगे।”

राजा वीरभद्र ने उसे इतना सोना देकर विदा किया जो उसकी जिन्दगी भर चले । वीरमूर्ति शीघ्र ही एक धनी व्यक्ति बन गया, लेकिन उसने निश्चय किया कि वह भी अपने चचेरे भाई की तरह जरूरतमन्दों की मदद करेगा।

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साभारः लोककथाओं से संकलित।

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1 Comments

Fiza Tanvi

13-Nov-2021 02:59 PM

Good

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